Class 12 Biology Chapter 16 पर्यावरण के मुद्दे Notes in Hindi

Class 12 Biology Chapter 16 पर्यावरण के मुद्दे Notes in Hindi: कक्षा 12 जीव विज्ञान अध्याय 16 के लिए व्यापक हिंदी नोट्स एक्सेस करें: पर्यावरणीय मुद्दे। सरलीकृत स्पष्टीकरण और प्रमुख अवधारणाओं को शामिल किया गया।

Class 12 Biology Chapter 16 पर्यावरण के मुद्दे Notes in Hindi

पर्यावरण के मुद्दे: गत सौ वर्ष में मनुष्य की जनसंख्या में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। इसके कारण अन्न, जल, घर, बिजली, सड़क, वाहन और अन्य वस्तुओं की माँग में भी वृद्धि हुई है। परिणामस्वरूप हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर काफी दबाव पड़ रहा है और वायु, जल तथा भूमि प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। हमारी आज भी आवश्यकता है कि विकास की प्रक्रिया को बिना रोके अपने महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों को खराब होने (निम्नीकरण) और इनको अवक्षय को रोकें और इसे प्रदूषित होने से बचाएँ।

प्रदूषण (Pollution) – प्रदूषण वायु, भूमि, जल या मृदा के भौतिक, रासायनिक या जैवीय अभिलक्षणों का एक अवांछनीय परिवर्तन है। अवांछनीय परिवर्तन उत्पन्न करने वाले कारकों को प्रदूषक (प्लूटैंट) कहते हैं। पर्यावरण के प्रदूषण को नियंत्रित तथा इसकी संरक्षा करने एवं हमारे पर्यावरण की गुणवत्ता सुधारने के लिये भारत सरकार द्वारा पर्यावरण (संरक्षा) अधिनियम, 1986 पारित किया गया है।

Class 12 Biology Chapter 16 पर्यावरण के मुद्दे Notes in Hindi

वायु प्रदूषण और इसका नियंत्रण

हम श्वसन सम्बन्धी आवश्यकताओं के लिये वायु पर निर्भर करते हैं। वायु प्रदूषक सभी जीवों को क्षति पहुँचाते हैं। वे फसल की वृद्धि एवं उत्पाद कम करते हैं और इनके कारण पौधे अपरिपक्व अवस्था में मर जाते हैं। वायु प्रदूषक मनुष्य और पशुओं के श्वसन तंत्र पर काफी हानिकारक प्रभाव डालते हैं। ये हानिकारक प्रभाव प्रदूषकों की सान्द्रता उद्भासन-काल और जीव पर निर्भर करते हैं।

ताप विद्युत संयंत्रों के धूम्र स्तम्भ (स्मोकस्टैकस), कणिकीय धूम्र और अन्य उद्योगों से हानिकर गैसें जब नाइट्रोजन, ऑक्सीजन आदि के साथ (पारटिकुलेट) और गैसीय वायु प्रदूषक भी निकलते हैं। वायुमण्डल में इन अहानिकारक गैसों को छोड़ने से पहले इन प्रदूषकों को पृथक करके या निस्यांदित (फिल्टर्ड) कर बाहर निकाल देना चाहिए।

कणिकीय पदार्थों को निकलने के कई तरीके हैं, सबसे अधिक व्यापक रूप से जो तरीका अपनाया जाता है वह है स्थिर वैद्युत अवक्षेपित्र (इलेक्ट्रोस्टैटिक प्रेसिपेटेटर) है, जो ताप विद्युत संयंत्र के निर्वात्तक (इगजॉस्ट) में मौजूद 99 प्रतिशत कणिकीय पदार्थों को हटा देता है। इसमें एक इलेक्ट्रोड तार होता है जिससे होकर हजारों वोल्ट गुजरता है जो कोरोना उत्पन्न करता है और इससे इलेक्ट्रॉन निकलते हैं। ये इलेक्ट्रॉन धूल के कणों से सट जाते हैं और इन्हें ऋण आवेश (नेगेटिव चार्ज) प्रदान करते हैं। संचायक पट्टिकाएँ नीचे की ओर आ जाती हैं और आवेशित धूल कणों को आकर्षित करती हैं। पट्टिकाओं के बीच वायु वेग (वेलॉसिटि) काफी कम होना चाहिए जिससे कि धूल नीचे गिर जाये। मार्जक (स्क्रबर) नामक संरचना सल्फर डाइआक्साइड जैसी गैसों को हटा सकती है। मार्जक में यह निर्वात जल या चूने की फुहार से होकर गुजरता है। हाल ही हमने कणिकीय पदार्थ, जो बहुत ही छोटे होते हैं और अवक्षेपित्र द्वारा हटाए नहीं जा सकते, के खतरों को अनुभव किया है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार 2.5 माइक्रोमीटर या कम व्यास के आकर (पी एम 2.5) के कणिकीय पदार्थ मानव स्वास्थ्य के लिये सबसे अधिक नुकसानदेह हैं। साँस अन्दर लेते समय ये सूक्ष्म कणिकीय पदार्थ फेफड़ों के भीतर चले जाते हैं और इनसे जैसे श्वसन संलक्षण उत्तेजना, शोथ और फेफड़ों की क्षति तथा अकाल मृत्यु हो सकती है।

खासकर महानगरों में स्वचालित वाहन वायुमंडल प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं। जैसे-जैसे सड़कों पर वाहनों की संख्या बढ़ती है यह समस्या अन्य शहरों में भी पहुँच रही है। स्वचालित वाहनों का रखरखाव उचित होना चाहिए। उनमें सीसा रहित पेट्रोल या डीजल का प्रयोग होने से उत्सर्जित प्रदूषकों की मात्रा कम हो सकती है। उत्प्रेरक परिवर्तक (कैटालिटिक कनवर्टर) में कीमती धातु, प्लेटिनम-पैलेडियम और रोडियम लगे होते हैं जो उत्प्रेरक (कैटेलिस्ट) का कार्य करते हैं। ये परिवर्तक स्वचालित वाहनों में लगे होते हैं जो विषैले गैसों के उत्सर्जन को कम करते हैं। जैसे ही निर्वात उत्प्रेरक परिवर्तक से होकर गुजरता है अद्ग्ध हाइड्रो कार्बन डाइआक्साइड और जल में बदल जाता है और कार्बन मोनोआॅक्साइड तथा नाइट्रिक आक्साइड क्रमश: कार्बन डाइआक्साइड और नाइट्रोजन गैस में परिवर्तित हो जाता है। उत्प्रेरक परिवर्तक युक्त मोटर वाहनों में सीसा रहित (अनलेडेड) पेट्रोल का उपयोग करना चाहिए, क्योंकि सीसा युक्त पेट्रोल उत्प्रेरक को अक्रिय करता है।

वाहन वायु प्रदूषण का नियंत्रण – दिल्ली में किया गया एक अध्ययन

वाहनों की संख्या काफी अधिक होने के कारण दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर देश में सबसे अधिक है। यहाँ पर वाहनों की संख्या गुजरात और पश्चिम बंगाल में कुल मिलाकर जितने वाहन हैं या उससे अधिक है। सन 1990 के एक आँकड़ों के अनुसार दिल्ली का स्थान विश्व के 41 सर्वाधिक प्रदूषित नगरों में चौथा है। दिल्ली में वायु प्रदूषण का मामला इतना खतरनाक हो गया कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की गई।

Class 12 Biology Chapter 16 पर्यावरण के मुद्दे Notes in Hindi

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसकी कड़ी निन्दा की गई और न्यायालय ने भारत सरकार से एक निश्चित अवधि में उचित उपाय करने का आदेश दिया साथ ही, यह भी आदेश दिया कि सभी सरकारी वाहनों यानी बसों में डीजल के स्थान पर सम्पीडित प्राकृतिक गैस (सीएनजी) का प्रयोग किया जाये। वर्ष 2002 के अन्त तक दिल्ली की सभी बसों को सीएनजी में परिवर्तित कर दिया गया। आप पूछ सकते हैं कि सीएनजी डीजल से बेहतर क्यों है। इसका उत्तर है कि वाहन में सीएनजी सबसे अच्छी तरह जलता है और बहुत ही कम मात्र में जलने से बच जाता है जबकि डीजल या पेट्रोल के मामले में ऐसा नहीं है। इसके अलावा यह पेट्रोल या डीजल से सस्ता है। चोर इसकी चोरी नहीं कर सकता और पेट्रोल तथा डीजल की तरह इसे अपमिश्रित नहीं किया जा सकता। सीएनजी में परिवर्तित करने में मुख्य समस्या इसे वितरण स्थल/पम्प तक ले जाने के लिये पाइप लाइन बिछाने की कठिनाई को लेकर और इसकी अबाधित सप्लाई करने की है। साथ-ही-साथ दिल्ली में वाहन प्रदूषण को कम करने के जो अन्य उपाय किये गए हैं वे ये हैं पुरानी गाड़ियों को धीरे-धीरे हटा देना, सीसा रहित पेट्रोल और डीजल का प्रयोग, कम गंधक (सल्फर) युक्त पेट्रोल और डीजल का प्रयोग, वाहनों में उत्प्रेरक परिवर्तकों का प्रयोग, वाहनों के लिये कठोर प्रदूषण स्तर लागू करना आदि।

भारत में उत्सर्जन मानक

वाहनमानकजिन शहरों में लागू है
चार पहिया चार पहिया 
तीन पहिया दुपहिया
भारत स्टेज IIIभारत स्टेज IV
भारत स्टेज IIIभारत स्टेज III
अक्टूबर 2010 में देशभर में13 बड़े शहरों- दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, बंगलुरु, सूरत, कानपुर, आगरा, लखनऊ व शोलापुर में अप्रैल 2010 सेअक्टूबर 2010 से देशभर मेंअक्टूबर 2010 से देशभर में

दिल्ली में किये गए इस प्रयासों को धन्यवाद, जिसके कारण यहाँ की वायु की गुणवत्ता में काफी सुधार हुआ। एक आकलन के अनुसार सन 1997-2005 तक दिल्ली में CO और SO2 के स्तर में काफी गिरावट आई है।

भारत में वायु प्रदूषण निरोध एवं नियंत्रण अधिनियम 1981 में लागू हुआ, लेकिन इसमें 1987 में संशोधन कर शोर को वायु प्रदूषण के रूप में सम्मिलित किया गया। शोर (नॉइज) एक अवांछित उच्च स्तर ध्वनि है। हम आनन्द और मनोरंजन के लिये तेज ध्वनि के आदी हो गए हैं, लेकिन यह नहीं सोचते कि इसके कारण मानव में मनोवैज्ञानिक और कार्यकीय या शरीर क्रियात्मक विकार (डिसऑर्डर) पैदा होते हैं। जितना बड़ा शहर उतना ही बड़ा उत्सव और उतना ही अधिक शोर! किसी जेट वायुयान या रॉकेट के उड़ान के समय उत्पन्न अति उच्च ध्वनि स्तर 150 डेसिबल या इससे अधिक स्तर की ध्वनि को थोड़े ही समय तक सुनने से कर्ण-पटह (इअर ड्रम) क्षतिग्रस्त हो सकता है। इस प्रकार व्यक्ति की सुनने की क्षमता सदा के लिये नष्ट हो सकती है। शहरों की अपेक्षाकृत निम्न ध्वनि स्तर के दीर्घकालिक उद्भासन के कारण भी हमारी सुनने की क्षमता स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त हो सकती है। शोर के कारण अनिद्रा, हृद-स्पंद (हर्ट बीटिंग) का बढ़ जाना, श्वसन के तरीके में परिवर्तन आदि से मनुष्य पीड़ित हो सकता है, जिसके कारण वह काफी तनाव की स्थिति में रहता है।

यह जानते हुए कि शोर प्रदूषण के कई खतरनाक प्रभाव होते हैं, क्या आप अपने आस पास के अनावश्यक ध्वनि प्रदूषण के स्रोत का पता लगा सकते हैं, जिसे किसी को आर्थिक हानि पहुँचाए बिना तत्काल कम किया जा सकता है? हमारे उद्योगों में ध्वनि-अवशोषक पदार्थ का प्रयोग कर या ध्वनि ढककर इसे कम किया जा सकता है। अस्पताल और स्कूल के आस पास हॉर्न-मुक्त जोन का सीमांकन, पटाखे और लाउडस्पीकर के लिये अनुमेय ध्वनि-स्तर, लाउडस्पीकर के लिये समय-सीमा तय करके, ताकि उसके बाद इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता है, आदि के बारे में कठोर कानून बनाकर और उसे लागू कर ध्वनि प्रदूषण से अपनी रक्षा कर सकते हैं।

भारत सरकार ने एक नई वाहन ईंधन नीति के तहत यहाँ के शहरों में वाहन प्रदूषण को कम करने के लिये मार्गदर्शी सिद्धान्त निर्धारित किया है। ईंधन के लिये अधिक कठोर मानक बनाए गए हैं ताकि पेट्रोल और डीजल ईंधनों में धीरे-धीरे गंधक और एरोमेटिक की मात्र कम की जाये। उदाहरण के लिये, यूरो III मानक के अनुसार डीजल और पेट्रोल में गंधक भी नियंत्रित कर क्रमशः 350 और 150 पार्ट्स प्रति मिलियन (पीपीएम) करना चाहिए। सम्बन्धित ईंधन में एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन 42 प्रतिशत पर सीमित करना चाहिए। मार्गदर्शी के अनुसार पेट्रोल और डीजल में गंधक को कम कर 50 पीपीएम पर लाकर लक्ष्य को 35 प्रतिशत के स्तर पर लाना चाहिए। ईंधन के अनुरूप वाहन के इंजनों में भी सुधार करना पड़ेगा। उत्सर्जन मानक (भारत स्टेज II, जो यूरो-II मानक के तुल्य है) अब भारत के किसी भी नगर में लागू नहीं है। भारत में उत्सर्जन मानकों का नवीनतम विवरण तालिका 16-1 में दिया गया हैः

जल प्रदूषण एवं इसका नियंत्रण

सम्पूर्ण विश्व में मनुष्य जलाशयों में सभी प्रकार के अपशिष्ट का निपटान का इसका दुरुपयोग कर रहा है। हम यह मान लेते हैं कि जल सब कुछ बहाकर ले जाएगा। ऐसा करते समय हम यह नहीं सोचते कि जलाशय हमारे साथ-साथ अन्य सभी जीवों के लिये जीवन का आधार है।

Class 12 Biology Chapter 16 पर्यावरण के मुद्दे Notes in Hindi

क्या आप बता सकते हैं कि हम नदियों और नालों में क्या-क्या बहा देते हैं? विश्व के अनेक भागों में तालाब, झील, सरिता (या धारा) नदी, ज्वारनदमुख (ऐस्चुएरी) और महासागर के जल प्रदूषित हो रहे हैं। जलाशयों की स्वच्छता को कायम रखने के महत्त्व को समझते हुए भारत सरकार ने 1974 में जल प्रदूषण निरोध एवं नियंत्रण अधिनियम पारित किया है ताकि हमारे जल संसाधनों को प्रदूषित होने से बचाया जा सके।

घरेलू वाहित मल और औद्योगिक बहिःस्राव

नगरों और शहरों में जब हम अपने घरों में जल का काम करते हैं तो सभी चीजों को नालियों में बहा देते हैं। क्या आपको कभी आश्चर्य हुआ है कि हमारे घरों से निकलने वाला वाहित मल कहाँ जाता है? क्या समीपस्थ नदी में ले जाकर डालने या इसमें मिलने से पूर्व वाहित मल का उपचार किया जाता है? केवल 0.1 प्रतिशत अपद्रव्यों (इम्प्यूरीटीज) के कारण ही घरेलू वाहित मल मानव के उपयोग के लायक नहीं रहता है। आप वाहित मल उपचार-संयत्र के बारे में अध्याय 10 में पढ़ चुके हैं। ठोस पदार्थों को निकालना अपेक्षाकृत आसान है लेकिन विलीन लवण, जैसे नाइट्राइट, फास्फेट और अन्य पोषकों तथा विषैले धातु आयनों और कार्बनिक यौगिक को निकालना कठिन है। घरेलू मल में मुख्य रूप से जैव निम्नीकरणीय कार्बनिक पदार्थ होते हैं जिनका अपघटन (डिकम्पोजिशन) आसानी से होता है। हम अभारी हैं जीवाणु (बैक्टीरिया) और अन्य सूक्ष्म जीवों के जो इन जैव पदार्थों का उपयोग कार्यद्रव (सब्सट्रेट) के रूप में भी करके अपनी संख्या में वृद्धि कर सकते हैं और इस प्रकार ये वाहित मल के कुछ अवयवों का उपयोग करते हैं। वाहितमल जल जीव रासायनिक आक्सीजन आवश्यकता (बायोकेमिकल आॅक्सीजन डिमांड/बीओडी) माप कर जैव पदार्थ की मात्रा का आकलन किया जा सकता है। क्या आप बता सकते हैं कि यह किस प्रकार किया जाता है? सूक्ष्मजीव से सम्बन्धित अध्याय में आप बीओडी, सूक्ष्मजीवों और जैव निम्नीकरणीय पदार्थ के परस्पर सम्बन्ध के बारे में पढ़ चुके हैं।

जैव पदार्थों के जैव निम्नीकरण (बायोडिग्रेडेशन) से जुड़े सूक्ष्मजीव आॅक्सीजन की काफी मात्रा का उपभोग करते हैं। इसके स्वरूप वाहितमल विसर्जन स्थल पर भी अनुप्रवाह (डाउनस्ट्रीम) जल में घुली आक्सीजन की मात्रा में तेजी से गिरावट आती है और इसके कारण मछलियों तथा अन्य जलीय जीवों के मृत्यु दर में वृद्धि हो जाती है।

जलाशयों में काफी मात्रा में पोषकों की उपस्थिति के कारण प्लवकीय (मुक्त-प्लावी) शैवाल की अतिशय वृद्धि होती है इसे शैवाल प्रस्फुटन (अल्गल ब्लूम) कहा जाता है। इसके कारण जलाशयों का रंग विशेष प्रकार का हो जाता है। शैवाल प्रस्फुटन के कारण जल की गुणवत्ता घट जाती है और मछलियाँ मर जाती हैं। कुछ प्रस्फुटनकारी शैवाल मनुष्य और जानवरों के लिये अतिशय विषैले होते हैं।

आपने नीलाशोण (मोव) रंग के सुन्दर फूलों का देखा होगा जो जलाशयों में काफी चित्ताकर्षक आकार के प्लावी पौधें पर होते हैं। ये पौधे अपने सुन्दर फूलों के कारण भारत में उगाए गए थे, लेकिन अपनी अतिशय वृद्धि के कारण तबाही मचा रहे हैं। ये पौधे हमारी हटाने की क्षमता से कहीं अधिक तेजी से वृद्धि कर, हमारे जलमार्गों (वाटर वे) को अवरुद्ध कर। ये जल हायसिंथ (आइकोर्निया केसिपीज) पादप हैं जो विश्व के सबसे अधिक समस्या उत्पन्न करने वाले जलीय खरपतवार (वीड) हैं और जिन्हें बंगाल का आतंक भी कहा जाता है। ये पादप सुपोषी जलाशयों में काफी वृद्धि करते हैं और इसके पारितंत्र गति को असन्तुलित कर देते हैं।

हमारे घरों के साथ-साथ अस्पतालों के वाहित मल में बहुत से अवांछित रोगजनक सूक्ष्मजीव हो सकते हैं और उचित उपचार के बिना इसको जल में विसर्जित करने से कठिन रोग- जैसे पेचिश (अतिसार), टाइफाइड, पीलिया (जांडिस), हैजा (कोलरा) आदि हो सकते हैं।

घरेलू वाहित मल की अपेक्षा उद्योगों, जैसे पेट्रोलियम, कागज उत्पादन, धातु निष्कर्षन (एक्सट्रेक्सन) एवं प्रसंस्करण (प्रोसेसिंग), रासायनिक-उत्पादन आदि के अपशिष्ट जल में प्रायः विषैले पदार्थ, खासकर भारी धातु (ऐसे तत्त्व जिनका घनत्व >5 ग्राम/सेमी, जैसे पारा, कैडमियम, तांबा, सीसा आदि) और कई प्रकार के कार्बनिक यौगिक होते हैं।

उद्योगों के अपशिष्ट जल में प्रायः विद्यमान कुछ विषैले पदार्थों में जलीय खाद्य शृंखला जैव आवर्धन (बायोमैग्निफिकेशन) कर सकते हैं। जैव आवर्धन का तात्पर्य है, क्रमिक पोषण स्तर (ट्राफिक लेबल) पर आविषाक्त की सान्द्रता में वृद्धि का होना। इसका कारण है जीव द्वारा संग्रहित आविषालु पदार्थ उपापचयित या उत्सर्जित नहीं हो सकता और इस प्रकार यह अगले उच्चतर पोषण स्तर पर पहुँच जाता है। यह परिघटन पारा एवं डीडीटी के लिये सुविदित है। चित 16.5 में जलीय खाद्य शृंखला में डीडीटी का जैव आवर्धन दर्शाया गया है।

इस प्रकार क्रमिक पोषण स्तरों पर डीडीटी की सान्द्रता बढ़ जाती है। यदि जल में यह सान्द्रता 0.003 पीपीबी से आरम्भ होती है तो अन्त में जैव आवर्धन के द्वारा मत्स्यभक्षी पक्षियों में बढ़कर 25 पीपीएम हो जाती है। पक्षियों में डीडीटी की उच्च सान्द्रता कैल्शियम उपापचय को नुकसान पहुँचाती है जिसके कारण अंड-कवच (एग शेल) पतला हो जाता है और यह समय से पहले फट जाता है जिसके कारण पक्षी-समष्टि (बर्ड पोपुलेशन) यानी इनकी संख्या में कमी हो जाती है।

सुपोषण (यूट्राफिकेशन) झील का प्राकृतिक काल-प्रभावन (एजिंग) दर्शाता है यानी झील अधिक उम्र की हो जाती है। यह इसके जल की जैव समृद्धि के कारण होता है। तरुण (कम उम्र की) झील का जल शीतल और स्वच्छ होता है। समय के साथ-साथ, इसमें सरिता के जल के साथ पोषक तत्व जैसे नाइट्रोजन और फास्फोरस आते रहते हैं जिसके कारण जलीय जीवों में वृद्धि होती रहती है। जैसे-जैसे झील की उर्वरता बढ़ती है वैसे-वैसे पादप और प्राणि जीवन प्राणि बढ़ने लगते हैं और कार्बनिक अवशेष झील के तल में बैठने लगते हैं। सैकड़ों वर्षों में इसमें जैसे-जैसे साद (सिल्ट) और जैव मलबे (आर्गेनिक मलबा) का ढेर लगता जाता है वैसे-वैसे झील उथली और गर्म होती जाती है; झील के ठंडे पर्यावरण वाले जीव के स्थान पर उष्णजल जीव रहने लगते हैं। कच्छ पाद उथली जगह पर जड़ जमा लेते हैं और झील की मूल द्रोणी (बेसिन) को भरने लगते हैं उथले झील में अब कच्छ पादप उग आते हैं और मूल झील बेसिन उनसे भर जाता है। कालान्तर में झील काफी संख्या में प्लावी पादपों (दलदल/बाग) से भर जाता है और अन्त में यह भूमि परिवर्तित हो जाता है। जलवायु, झील का साइज और अन्य कारकों के अनुसार झील का यह प्राकृतिक काल-प्रभावन हजाारों वर्षों में होता है। फिर भी मनुष्य के क्रिया कलाप, जैसे उद्योगों और घरों के बहिःस्राव (एफ्लुएंट) काल-प्रभावन प्रक्रम में मूलतः तेजी ला सकते हैं। इस प्रक्रिया को संवर्ध (कल्चरल) या त्वरित सुपोषण (एक्सिलरेटेड यूट्राफिकेशन) कहा जाता है। गत शताब्दी में पृथ्वी के कई भागों के झील का वाहित मल और कृषि तथा औद्योगिक अपशिष्ट के कारण तीव्र सुपोषण हुआ है। इसके मुख्य सन्दूषक नाइट्रेट और फास्फोरस हैं जो पौधों के लिये पोषक का कार्य करते हैं। इनके कारण शैवाल की वृद्धि अति उद्दीपित होती है जिसकी वजह से अरमणीक मलफेन (स्कम) बनते तथा अरुचिकर गंध निकलती हैं। ऐसा होने से जल में विलीन आक्सीजन जो अन्य जल-जीवों के लिये अनिवार्य (वाइटल) है, समाप्त हो जाती है। साथ ही झील में बहकर आने वाले अन्य प्रदूषक सम्पूर्ण मत्स्य समष्टि को विषाक्त कर सकता है। जिनके अपघटन के अवशेष से जल में विलीन आक्सीजन की मात्रा और कम हो जाती है। इस प्रकार वास्तव में घुट कर मर सकती है।

विद्युत उत्पादी यूनिट यानी तापीय विद्युत संयंत्रों से बाहर निकलने वाले तप्त (तापीय) अपशिष्ट जल दूसरे महत्त्वपूर्ण श्रेणी के प्रदूषक हैं। तापीय अपशिष्ट जल में उच्च तापमान के प्रति संवेदनशील जीव जीवित नहीं रह पाते या इसमें उनकी संख्या कम हो जाती है लेकिन अत्यन्त शीत-क्षेत्रों में इसमें पौधों तथा मछलियों की वृद्धि अधिक होती है।

एकीकृत अपशिष्ट जल उपचारः केस अध्ययन

वाहित मल सहित अपशिष्ट जल का उपचार एकीकृत ढंग से कृत्रिम और प्राकृतिक दोनों प्रक्रमों को मिला-जुलाकर किया जा सकता है। इस प्रक्रम का प्रयास कैलीफोर्निया के उत्तरी तट पर स्थित अर्काटा शहर में किया गया। हमबोल्ट स्टेट यूनीवर्सिटी के जीव वैज्ञानिकों के सहयोग से शहर के लोगों ने प्राकृतिक तंत्र के अन्तर्गत एकीकृत जल उपचार प्रक्रम तैयार किया गया। जलोपचार का कार्य दो चरणों में किया जाता है (क) परम्परागत अवसादन, जिसमें निस्यन्दन और क्लोरीन द्वारा उपचार किया जाता है। इस चरण के बाद भी खतरनाक प्रदूषक जैसे भारी धातु, काफी मात्र में घुले रूप में रह जाते हैं। इसे दूर करने के लिये एक नवीन प्रक्रिया अपनाई गई और (ख) जीव वैज्ञानिकों ने लगभग 60 हेक्टेयर कच्छ भूमि में आपस में जुड़े हुए छह कच्छों (मार्शेस) की एक शृंखला विकसित की। इस क्षेत्र में उचित पादप, शैवाल, कवक और जीवाणु छिड़के गए जो प्रदूषकों को निष्प्रभावी, अवशोषित और स्वांगीकृत (एसिमिलेट) करते हैं। इसलिये कच्छों से होकर गुजरने वाला जल प्राकृतिक रूप से शुद्ध हो जाता है।

कच्छ एक अभयारण्य की तरह कार्य करता है यहाँ उच्च स्तरीय जैव विविधता, और मछलियाँ, जानवर और पक्षी वास करते हैं। इस आश्चर्यजनक परियोजना की देखभाल तथा सुरक्षा नागरिकों के एक समूह, फ्रेंड्स ऑफ आर्कटा मार्श (एफओएएम) द्वारा की जाती है।

अब तक हमारी यह धारणा रही है कि अपशिष्ट को दूर करने के लिये जल यानी वाहित मल के निर्माण की जरूरत होती है। लेकिन मानव अपशिष्ट, उत्सर्ग (एक्सक्रीटा) यानी मल-मूत्र के निपटान के लिये यदि जल जरूरी न हो तो क्या होगा? क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि यदि टॉयलेट को फ्लश न करना पड़े तो जल की कितनी बचत होगी? वास्तव में यह एक वास्तविकता है।

मानव उत्सर्ग (मलमूत्र) के हैण्डलिंग (निपटान) के लिये पारिस्थितिक स्वच्छता एक निर्वहनीय तंत्र है जिसमें शुष्क टॉयलेट कम्पोस्टिंग का प्रयोग किया जाता है। मानव अपशिष्ट निपटान के लिये यह व्यावहारिक, स्वास्थ्यकर और कम लागत का तरीका है। यहाँ ध्यान देने योग्य मुख्य बात यह है कि कम्पोस्ट की इस विधि से मानव मलमूत्र (उत्सर्ग) का पुनश्चक्रण कर एक संसाधन (प्राकृतिक उर्वरक) के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। इससे रासायनिक खाद की आवश्यकता कम हो जाती है। केरल के कई भागों और श्रीलंका में ‘इकोसैन’ शौचालयों (टॉयलेट) का प्रयोग किया जा रहा है।

ठोस अपशिष्ट

Class 12 Biology Chapter 16 पर्यावरण के मुद्दे Notes in Hindi

ठोस अपशिष्ट में वे सभी चीजें सम्मिलित हैं जो कूड़ा-कचरा में फेंक दी जाती हैं। नगरपालिका के ठोस-अपशिष्ट में घरों, कार्यालयों, भण्डारों, विद्यालयों आदि से रद्दी में फेंकी गई सभी चीजें आती हैं जो नगरपालिका द्वारा इकट्ठा की जाती हैं और उनका निपटान किया जाता है। नगरपालिका के ठोस अपशिष्ट में आमतौर पर कागज, खाद्य अपशिष्ट, काँच, धातु, रबड़, चमड़ा, वस्त्र आदि होते हैं। इनको जलाने से अपशिष्ट के आयतन में कमी आ जाती है। लेकिन यह सामान्यतः पूरी तरह जलता नहीं है और खुले में इसे फेंकने से यह चूहों और मक्खियों के लिये प्रजनन स्थल का कार्य करता है। सेनिटरी लैंडफिल्स खुले स्थान में जलाकर ढेर लगाने के बदले अपनाया गया था। सेनिटरी लैंडफिल में अपशिष्ट को संहनन (कॉम्पैक्शन) के बाद गड्ढा या खाई में डाला जाता है और प्रतिदिन धूल-मिट्टी (डर्ट) से ढँक दिया जाता है। यदि आप किसी शहर या नगर में रहते हैं तो क्या आपको मालूम है कि सबसे नजदीकी लैंडफिल स्थल कहाँ है? वास्तव में लैंडफिल्स भी कोई अच्छा हल नहीं है क्योंकि खासकर महानगरों में कचरा (गार्बेज) इतना अधिक होने लगा है 

Class 12 Biology Chapter 16 पर्यावरण के मुद्दे Notes in Hindi

कि ये स्थल भी भर जाते हैं। इन लैंडफिल्स से रासायनों के भी रिसाव का खतरा है जिससे कि भौम जल संसाधन प्रदूषित हो जाते हैं।इन सबका एक मात्र हल है कि पर्यावरणीय मुद्दों के प्रति हम सभी को अधिक संवेदनशील होना चाहिए। हमारे द्वारा उत्पन्न अपशिष्ट को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है (क) जैव निम्नीकरण योग्य (बायोडिग्रेडेबल) (ख) पुनश्चक्रण योग्य और (ग) जैव निम्नीकरण अयोग्य। यह महत्त्वपूर्ण है कि उत्पन्न सभी कचरे की छँटाई की जाये। जिस कचरे का प्रयोग या पुनश्चक्रण किया जा सकता है उसे अलग किया जाये। कचराबीन या गुदड़िया (रैग पिकर) पुनश्चक्रण किये जाने वाले पदार्थों को अलग कर एक बड़ा काम करता है। जैव निम्नीकरणीय पदार्थों को जमीन में गहरे गड्ढे में रखा जा सकता है और प्राकृतिक रूप में अपघटन के लिये छोड़ दिया जाता है। इसके पश्चात केवल अजैव निम्नीकरणीय निपटान के लिये बच जाता है। हमारा मुख्य लक्ष्य होना चाहिए कि कचरा कम उत्पन्न हो लेकिन इसके स्थान पर हम लोग अजैवनिम्नीकरणीय उत्पादों का प्रयोग अधिक करते जा रहे हैं। किसी अच्छी गुणवत्ता की खाद्य सामग्री का तैयार (Ready-made) पैकेट, जैसे बिस्कुट का पैकेट उठाकर उसकी पैकिंग को देखें और क्या आप पैकिंग के कई रक्षात्मक तहों को देखते हैं? उनमें से एक तह प्लास्टिक की होती है। हम अपनी दैनिक प्रयोग में आने वाली चीजों, जैसे दूध और जल को भी पॉलीबैग में पैक करने लगे हैं। शहरों में फल और सब्जियाँ भी सुन्दर पॉलीस्टेरीन और प्लास्टिक पैक में कर दी जा सकती हैं। हमें इनकी काफी कीमत चुकानी पड़ती है और हम करते क्या हैं? पर्यावरण को काफी प्रदूषित करने में योगदान दे रहे हैं। पूरे देश में राज्य सरकारें प्रयास कर रही हैं कि प्लास्टिक का प्रयोग कम हो और इनके बदले पारि-हितैषी या मैत्री पैकिंग का प्रयोग हो। हम जब सामान खरीदने जाएँ तो कपड़े का थैला या अन्य प्राकृतिक रेशे के बने कैरी-बैग लेकर जाएँ और पॉलिथीन के बने थैले को लेने से मना करें।

प्लास्टिक अपशिष्ट के उपचार सम्बन्धी अध्ययन

बंगलुरु में प्लास्टिक की बोरी के उत्पादनकर्ता, 57 वर्षीय अहमद खान ने प्लास्टिक अपशिष्ट की सतत बढ़ती हुई समस्या का एक आदर्श हल ढूँढ लिया है। वह पिछले 20 वर्षों से प्लास्टिक की बोरियाँ बना रहा है। लगभग 8 वर्ष पहले उसने महसूस किया कि प्लास्टिक अपशिष्ट एक वास्तविक समस्या है। उसकी कम्पनी ने पुनश्चक्रित परिवर्तित प्लास्टिक का पॉलिब्लेंड नामक एक महीन पाउडर तैयार किया।

इस मिश्रण को बिटुमेन के साथ मिश्रित किया गया जिसका प्रयोग सड़क बनाने में किया जाता है। अहमद खान ने आर-वी- इंजीनियरिंग कॉलेज और बंगलुरु सिटी कार्पोरेशन के सहयोग से बिटुमेन और पॉलिब्लेंड के सम्मिश्रण (ब्लैंड) का प्रयोग सड़क बनाते समय किया तो पाया कि बिटुमेन का जल विकर्षक-(रिपेलेंट) गुण बढ़ गया और इसके कारण सड़क की आयु तीन गुना अधिक हो गई। पॉलिब्लेंड बनाने के लिये कच्चे माल के रूप में किसी प्लास्टिक फिल्म अपशिष्ट का प्रयोग किया जाता है। प्लास्टिक अपशिष्ट के लिये कचरा-चुनने वालों को जहाँ 0-40 रुपए प्रति किलोग्राम मिलता था, अब खान से उन्हें 6 रुपए प्रति किलोग्राम मिलने लगा है।

बंगलुरु में खान की तकनीक का प्रयोग कर वर्ष 2002 तक लगभग 40 किलोमीटर सड़क का निर्माण हो चुका है। वहाँ पर अब खान को पॉलिब्लेंड तैयार करने के लिये जल्द ही प्लास्टिक अपशिष्ट की कमी पड़ने लगेगी। पॉलिब्लेंड की खोज के लिये आभार मानना चाहिए कि अब हम प्लास्टिक अवशिष्ट के दमघोंटू दुष्प्रभाव से अपने को बचा सकते हैं।

अस्पताल से खतरनाक अपशिष्ट निकलते हैं जिसमें विसंक्रामक डिसिंफेक्टेंट और अन्य हानिकर रसायन तथा रोगजनक सूक्ष्म जीव भी होते हैं। इस प्रकार के अपशिष्ट की सावधानीपूर्वक उपचार और निपटान की आवश्यकता होती है। अस्पताल के अपशिष्ट के निपटान के लिये भस्मक (इंसिनरेटर) का प्रयोग अत्यन्त आवश्यक है।

ऐसे कम्प्यूटर और इलेक्ट्रॉनिक सामान जो मरम्मत के लायक नहीं रह जाते हैं इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट (ई-वेस्ट्स) कहलाते हैं। ई-अपशिष्ट को लैंडफिल्स में गाड़ दिया जाता है या जलाकर भस्म कर दिया जाता है। विकसित देशों में उत्पादित ई-अपशिष्ट का आधे-से-अधिक भाग विकासशील देशों, खासकर चीन, भारत तथा पाकिस्तान में निर्यात किया जाता है जबकि तांबा, लोहा, सिलिकॉन, निकल और स्वर्ण जैसे धातु पुनश्चक्रण (रीसाइक्लिंग) प्रक्रियाओं द्वारा प्राप्त किये जाते हैं। विकसित देशों में ई-अपशिष्ट के पुनश्चक्रण की सुविधाएँ तो उपलब्ध हैं लेकिन विकासशील देशों में यह कार्य प्रायः हाथ से किया जाता है। इस प्रकार इस कार्य से जुड़े कर्मियों पर ई-अपशिष्ट में मौजूद विषैले पदार्थों का प्रभाव पड़ता है। ई-अपशिष्ट के उपचार का एकमात्र हल पुनश्चक्रण है, यदि इसे पर्यावरण-अनुकूल या हितैषी तरीके से किया जाये।

कृषि-रसायन और उनके प्रभाव

हरित क्रान्ति के चलते फसल उत्पादन बढ़ाने के लिये अजैव (अकार्बनिक) उर्वरक (इनआर्गेनिक फर्टिलाइजर) और पीड़कनाशी का प्रयोग कई गुना बढ़ गया है और अब पीड़कनाशी, शाकनाशी, कवकनाशी (फंगीसाइड) आदि का प्रयोग काफी होने लगा है। ये सभी अलक्ष्य जीवों (नॉन-टारगेट आर्गेनिज्म), जो मृदा पारितंत्र के महत्त्वपूर्ण घटक हैं, के लिये विषैले हैं। क्या आप सोच सकते हैं कि स्थानीय पारितंत्र में उन्हें जैव आवर्धित (बायोमैग्निफाइड) किया जा सकता है? हम जानते हैं कि कृत्रिम उर्वरकों की मात्रा को बढ़ाते जाने से जलीय पारितंत्र बनाम सुपोषण (यूट्रॉफिकेशन) पर क्या असर होगा। इसलिये कृषि वर्तमान समस्याएँ अत्यन्त गम्भीर हैं।

जैव खेती- केस अध्ययन

एकीकृत जैव खेती चक्रीय एवं शून्य अपशिष्ट (जीरो वेस्ट) वाली है। इसमें एक प्रक्रम से प्राप्त अपशिष्ट अन्य प्रक्रमों के लिये पोषक के रूप में काम में आता है। इसके कारण संसाधन का अधिकतम उपयोग सम्भव है और उत्पादन की क्षमता भी बढ़ती है। रमेश चंद्र डागर नामक सोनीपत, हरियाणा का किसान भी यही कर रहा है। वह मधुमक्षिका पालन, डेयरी प्रबन्धन, जल संग्रहण (वाटर हार्वेस्टिंग), कम्पोस्ट बनाने और कृषि का कार्य शृंखलाबद्ध प्रक्रमों में करता है जो एक दूसरे को सम्भालते हैं और इस प्रकार यह एक बहुत ही किफायती और दीर्घ-उपयोगी प्रक्रम बन जाता है। उस फसल के लिये रासायनिक उर्वरक के प्रयोग की कोई आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि पशुधन के उत्सर्ग (मल-मूत्र) यानी गोबर का प्रयोग खाद के रूप में किया जाता है। फसल अपशिष्ट का प्रयोग कम्पोस्ट बनाने के लिये किया जाता है जिसका प्रयोग प्राकृतिक उर्वरक के रूप में या फार्म की ऊर्जा की आवश्यकता की पूर्ति के लिये प्राकृतिक गैस के उत्पादन में किया जा सकता है। इस सूचना के प्रसार और एकीकृत जैव खेती के प्रयोग में सहायता प्रदान करने के लिये डागर ने हरियाणा किसान कल्याण क्लब बनाया है जिसकी वर्तमान सदस्य संख्या 5000 कृषक है।

रेडियो सक्रिय अपशिष्ट

आरम्भ में न्यूक्लीय ऊर्जा को विद्युत उत्पादन के मामले में गैर-प्रदूषक तरीका माना जाता था। बाद में यह पता चला कि न्यूक्लीय ऊर्जा के प्रयोग में दो सर्वाधिक खतरनाक अन्तर्निहित समस्याएँ हैं। पहली समस्या आकस्मिक रिसाव की है जैसा कि थ्री माइल आयलैंड और चेरनोबिल की घटनाओं में हुआ था। इसकी दूसरी समस्या रेडियोसक्रिय अपशिष्ट के सुरक्षित निपटान की है।

न्यूक्लीय अपशिष्ट से निकलने वाला विकिरण जीवों के लिये बेहद नुकसानदेह होता है क्योंकि इसके कारण अति उच्चदर से उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) होते हैं। न्यूक्लीय अपशिष्ट विकिरण की ज्यादा मात्रा (डोज) घातक यानी जानलेवा (लीथल) होती है लेकिन कम मात्रा के कारण कई विकार होते हैं। इसका सबसे अधिक बार-बार होने वाला विकार कैंसर है। इसलिये न्यूक्लीय अपशिष्ट अत्यन्त प्रभावकारी प्रदूषक है और इसके उपचार में अत्यधिक सावधानी की जरूरत है।

ग्रीनहाउस प्रभाव और विश्वव्यापी उष्णता

‘ग्रीनहाउस प्रभाव’ शब्द की उत्पत्ति एक ऐसी परिघटना से हुई है जो पौधघर (ग्रीन हाउस) में होती है। क्या आपने कभी पौधघर देखा है? यह एक छोटा ग्लास का घर जैसा होता है जिसका उपयोग खासकर शीत ऋतु में पौधों को उगाने के लिये किया जाता है। ग्लास पैनल प्रकाश को अन्दर तो आने देता है लेकिन ताप को बाहर नहीं निकलने देता। इसलिये पौधघर ठीक उसी तरह गर्म हो जाता है जैसा कि कुछ घंटों के लिये धूप में पार्क कर दी गई कार का भीतरी भाग गर्म हो जाता है।

ग्रीनहाउस प्रभाव प्राकृतिक रूप से होने वाली परिघटना है जिसके कारण पृथ्वी की सतह और वायुमण्डल गर्म हो जाता है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि यदि ग्रीनहाउस प्रभाव नहीं होता तो आज पृथ्वी की सतह का औसत तापमान 15 डिग्री सेंटीग्रेड रहने के बजाय ठंडा होकर -18 (शून्य से नीचे) डिग्री सेंटीग्रेड रहता। ग्रीनहाउस प्रभाव को समझने के लिये यह जानना जरूरी है कि सबसे बाहरी वायुमंडल में पहुँचने वाली सूर्य की ऊर्जा का क्या होता है। पृथ्वी की ओर आने वाले सौर विकिरण का लगभग एक चौथाई भाग बादलों और गैसों से परावर्तित (रिफ्लेक्ट) हो जाता है और दूसरा चौथाई भाग वायुमंडलीय गैसों द्वारा अवशोषित हो जाता है। लगभग आधा आगत (इनकमिंग) सौर विकिरण पृथ्वी की सतह पर पड़ता है और उसे गर्म करता है इसका (इंफ्रारेड रेडिएशन) कुछ भाग परावर्तित होकर लौट जाता है। पृथ्वी की सतह अन्तरिक्ष में अवरक्त विकिरण के रूप में ऊष्मा (हीट) उत्सर्जित करती है। लेकिन इसका केवल बहुत छोटा भाग (टाइनी फ्रैक्शन) ही अन्तरिक्ष में जाता है क्योंकि इसका अधिकांश भाग वायुमंडलीय गैसों (यानी कार्बन डाइऑक्साइड, मेथेन, जलवाष्प, नाइट्रस ऑक्साइड और क्लोरो फ्लोरो कार्बनों) के द्वारा अवशोषित हो जाता है। इन गैसों के अणु (मॉलिक्यूल्स) ऊष्मा ऊर्जा (हीट एनर्जी) विकिरित करते हैं और इसका अधिकतर भाग पृथ्वी की सतह पर पुनः आ जाता है और इसे फिर से गर्म करता है। यह चक्र अनेकों बार होता रहता है। इस प्रकार पृथ्वी की सतह और निम्नतर वायुमंडल गर्म होता रहता है। ऊपर वर्णित गैसों को आमतौर पर ग्रीनहाउस गैस कहा जाता है क्योंकि इनके कारण ही ग्रीनहाउस प्रभाव पड़ते हैं।

ग्रीनहाउस गैसों के स्तर में वृद्धि के कारण पृथ्वी की सतह का ताप काफी बढ़ जाता है जिसके कारण विश्वव्यापी उष्णता होती है। गत शताब्दी में पृथ्वी के तापमान में 0-6 डिग्री सेंटीग्रेड वृद्धि हुई है। इसमें से अधिकतर वृद्धि पिछले तीन दशकों में ही हुई है। एक सुझाव के अनुसार सन 2100 तक विश्व का तापमान 1.4-5.8 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ सकता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि तापमान में इस वृद्धि से पर्यावरण में हानिकारक परिवर्तन होते हैं जिसके परिणामस्वरूप विचित्र जलवायु-परिवर्तन (जैसे कि E1 तीनों प्रभाव) होते हैं। इसके फलस्वरूप ध्रुवीय टिम टोपियों और अन्य जगहों, जैसे हिमालय की हिम चोटियों का पिघलना बढ़ जाता है। कई वर्षों बाद इससे समुद्र-तल का स्तर बढ़ेगा जो कई समुद्रतटीय क्षेत्रों को जलमग्न कर देगा। वैश्विक उष्णता से होने वाले परिवर्तनों का कुल परिदृश्य अभी भी सक्रिय अनुसन्धान का विषय है।

हम लोग विश्वव्यापी उष्णता को किस प्रकार नियंत्रित कर सकते हैं? इसका उपाय है जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को कम करना, ऊर्जा दक्षता में सुधार करना, वनोन्मूलन को कम करना तथा वृक्षारोपण और मनुष्य की बढ़ती हुई जनसंख्या को कम करना। वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिये अन्तरराष्ट्रीय प्रयास भी किये जा रहे हैं।

समतापमण्डल में ओजोन अवक्षय

यह सिफारिश की गई है कि परवर्ती भण्डारण का कार्य उचित रूप में कवचित पात्रों में चट्टानों के नीचे लगभग 500 मीटर की गहराई में पृथ्वी में गाड़कर करना चाहिए। यद्यपि, निपटान की इस विधि के बारे में भी लोगों का कड़ा विरोध है।

आपने इसके पहले रसायन विज्ञान की 11वीं की पाठ्यपुस्तक में ‘खराब’ ओजोन के बारे में पढ़ा है जो निम्नतर वायुमण्डल (क्षोभमण्डल/ट्रॉपोस्फीयर) में बनता है और जिससे पौधों और प्राणियों को नुकसान पहुँचा है। वायुमण्डल में ‘अच्छा’ ओजोन भी होता है जो इसके ऊपरी भाग यानी समतापमण्डल (स्ट्रैटोस्फीयर) में पाया जाता है। यह सूर्य से निकलने वाले पराबैंगनी विकिरण (अल्ट्रावायलेट रेडिएशन) को अवशोषित करने वाले कवच का काम करता है। सजीवों के डीएनए और प्रोटीन खास कर पराबैंगनी (यूवी) किरणों को अवशोषित करते हैं और इसकी उच्च ऊर्जा इन अणुओं के रासायनिक आबन्ध (केमिकल बॉन्ड्स) को भंग करते हैं। इस प्रकार पराबैंगनी किरणें सजीवों के लिये बेहद हानिकारक हैं। वायुमंडल के निचले भाग से लेकर शिखर तक वे वायु स्तम्भ (कॉलम) में ओजोन की मोटाई डॉबसन यूनिट (डीयू) में मापी जाती है।

आणविक ऑक्सीजन पर पराबैंगनी किरणों की क्रिया के फलस्वरूप ओजोन गैस सतत बनती रहती है और समतापमण्डल में इसका आणविक ऑक्सीजन में निम्नीकरण (डिग्रडेशन) भी होता रहता है। समतापमण्डल में ओजोन के उत्पादन और अवक्षय निम्नीकरण में सन्तुलन होना चाहिए। हाल में, क्लोरो फ्लोरो कार्बन (सीएफसीज/CFCs) के द्वारा ओजोन निम्नीकरण बढ़ जाने से इसका सन्तुलन बिगड़ गया है। वायुमण्डल के निचले भाग में उत्सर्जित CFCs ऊपर की ओर उठता है और यह समतापमण्डल में पहुँचता है। समतापमण्डल में पराबैंगनी किरणें उस पर कार्य करती हैं जिसके कारण C1 परमाणु का मोचन (रिलीज) होता है। C1 के कारण ओजोन का निम्नीकरण होता है जिनके कारण आणविक ऑक्सीजन का मोचन होता है। इस अभिक्रिया में C1 परमाणु का उपभोग नहीं होता है क्योंकि यह सिर्फ उत्प्रेरक का कार्य करता है। इसलिये समतापमण्डल में जो भी क्लोरो फ्लोरोकार्बन जुड़ते जाते हैं उनका ओजोन स्तर पर स्थायी और सतत प्रभाव पड़ता है। यद्यपि समतापमंडल में ओजोन का अवक्षय विस्तृत रूप से होता रहता है लेकिन यह अवक्षय अंटार्कटिक क्षेत्र में खासकर विशेष-रूप से अधिक होता है। इसके फलस्वरूप यहाँ काफी बड़े क्षेत्र में ओजोन की परत काफी पतली हो गई है जिसे सामान्यतया ओजोन छिद्र (ओजोन होल) कहा जाता है। पराबैंगनी -बी (यूवी-बी) की अपेक्षा छोटे तरंगदैर्ध्य (वेवलैंथ) युक्त पराबैंगनी (यूवी) विकिरण पृथ्वी के वायुमण्डल द्वारा लगभग पूरा-का-पूरा अवशोषित हो जाता है बशर्ते कि ओजोन स्तर ज्यों-का-त्यों रहे। लेकिन यूवी-बी डीएनए को क्षतिग्रस्त करता है और उत्परिवर्तन हो सकता है। इसके कारण त्वचा में बुढ़ापे के लक्षण दिखते हैं, इसकी कोशिकाएँ क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और विविध प्रकार के त्वचा कैंसर हो सकते हैं। हमारे आँख का स्वच्छमंडल (कॉर्निया) यूवी-बी विकिरण का अवशोषण करता है। इसकी उच्च मात्रा के कारण कॉर्निया का शोथ हो जाता है। जिसे हिम अन्धता (स्नो-ल्माइंडनेश) मोतियाबिन्द आदि कहा जाता है। इसके उद्भासन से स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त हो सकता है।

ओजोन अवक्षय के हानिकर प्रभाव को देखते हुए सन 1987 में माट्रिंयल (कनाडा) में एक अन्तरराष्ट्रीय सन्धि पर हस्ताक्षर हुए जिसे माट्रिंयल प्रोटोकॉल कहा जाता है। यह संधि 1989 से प्रभावी हुई। ओजोन अवक्षयकारी पदार्थों के उत्सर्जन पर नियंत्रण के लिये बाद में और कई अधिक प्रयास किये गए तथा और प्रोटोकॉल में विकसित और विकासशील देशों के लिये अलग-अलग निश्चित दिशा-निर्देश जोड़े गए जिससे कि सीएफसी और अन्य ओजोन अवक्षयकारी रसायनों के उत्सर्जनों को कम किया जाये।

संसाधन के अनुचित प्रयोग और अनुचित अनुरक्षण द्वारा निम्नीकरण

प्राकृतिक संसाधनों का निम्नीकरण न केवल प्रदूषकों की क्रिया के कारण होता है बल्कि संसाधनों के उपयोग करने के जो अनुचित तरीके हैं उनके कारण भी होता है।

मृदा अपरदन और मरुस्थलीकरण

सबसे ऊपरी मृदा के उर्वर होने में सैकड़ों वर्ष लग जाते हैं लेकिन मनुष्य के क्रियाकलापों जैसे अधिक खेती करने, अबाधित चराई, वनोन्मूलन और सिंचाई के घटिया तरीकों के कारण यह शीर्ष स्तर काफी आसानी से हटाया जा सकता है जिसके कारण शुष्क भूमि-खण्ड बन जाते हैं। कालान्तर में जब ये भूमि-खण्ड आपस में जुड़ जाते हैं तो मरुस्थल (डेजर्ट) का निर्माण होता है। पूरे विश्व में यह माना जाता है कि मरुस्थलीकरण, खासकर बढ़ते हुए नगरीकरण (शहरीकरण) के कारण, आजकल एक मुख्य समस्या है।

जलाक्रान्ति और मृदा लवणता

जल के उचित निकास के बिना सिंचाई के कारण मृदा में जलाक्रान्ति (वाटर लॉगिंग) होती है। फसल को प्रभावित करने के साथ-साथ इससे मृदा की सतह पर लवण आ जाता है। तब यह लवण भूमि की सतह पर एक पर्पटी (क्रस्ट) के रूप मे जमा हो जाता है या पौधों की जड़ों पर एकत्रित होने लगता है। लवण की बढ़ी हुई मात्रा फसल की वृद्धि के लिये नुकसानदेह है और कृषि के लिये बेहद हानिकर है। जलाक्रान्ति और लवणता कुछ ऐसी समस्याएँ हैं जो हरित क्रान्ति के कारण आई हैं।

वनोन्मूलन

वन प्रदेश का वन-रहित क्षेत्रों में रूपान्तरण करना वनोन्मूलन (डीफोरेस्ट्रेशन) कहा जाता है। एक आकलन के अनुसार शीतोष्ण क्षेत्र में केवल एक प्रतिशत वन नष्ट हुए हैं, जबकि उष्णकटिबन्ध में लगभग 40 प्रतिशत वन नष्ट हो गए हैं। भारत में खासकर निर्वनीकरण की वर्तमान स्थिति काफी दयनीय है। 20वीं सदी के प्रारम्भ में भारत के कुल क्षेत्रफल के लगभग 30 प्रतिशत भाग में जंगल थे।

सदी के अन्त तक यह घटकर 19.4 प्रतिशत रह गया। भारत की राष्ट्रीय वन नीति (1988) में सिफारिश की गई है कि मैदानी इलाकों में 33 प्रतिशत जंगल क्षेत्र होने चाहिए और पर्वतीय क्षेत्रों में 67 प्रतिशत जंगल क्षेत्र होने चाहिए।

वनोन्मूलन किस प्रकार होता है? इसके लिये कोई एक कारण नहीं है। बल्कि मनुष्य के कई कार्य वनोन्मूलन यानी वनों के उन्मूलन में सहायक होते हैं। वनोन्मूलन का एक मुख्य कारण है कि वन प्रदेश को कृषि भूमि में बदला जा रहा है जिससे कि मनुष्य की बढ़ती हुई जनसंख्या के लिये भोजन उपलब्ध हो सके। वृक्ष, इमारती लकड़ी (टिंबर), काष्ठ-ईंधन, पशु-फार्म और अन्य कई उद्देश्यों के लिये काटे जाते हैं। काटो और जलाओ कृषि (स्लैश एवं बर्न कृषि) (एग्रिकल्चर) जिसे आमतौर पर भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों में झूम खेती (कल्टिवेशन) कहा जाता है, के कारण भी वनोन्मूलन हो रहा है। काटो एवं जलाओ कृषि में कृषक जंगल के वृक्षों को काट देते हैं और पादप-अवशेष को जला देते हैं। राख का प्रयोग उर्वरक के रूप में तथा उस भूमि का प्रयोग खेती के लिये या पशु चरागाह के रूप में किया जाता है। खेती के बाद उस भूमि को कई वर्षों तक वैसे ही खाली छोड़ दिया जाता है ताकि पुनःउर्वर हो जाये। कृषक फिर अन्य क्षेत्रों में जाकर इसी प्रक्रिया को दोहराता है।

वनोन्मूलन के परिणाम क्या-क्या हैं? इसके मुख्य प्रभावों में से एक है कि वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की सान्द्रता बढ़ जाती है क्योंकि वृक्ष जो अपने जैवभार (बायोमास) में काफी अधिक कार्बन धारण कर सकते थे वनोन्मूलन के कारण नष्ट हो रहे हैं। वनोन्मूलन के कारण आवास नष्ट होने से जैव-विविधता (बायोडाइवर्सिटी) में कमी होती है। इसके कारण जलीय चक्र (हाइड्रोलॉजिकल साइकल) बिगड़ जाता है, मृदा का अपरदन होता है और चरम मामलों में इसका मरुस्थलीकरण (डेजर्टिफिकेशन) यानी मरुभूमि में परिवर्तित हो सकता है।

पुनर्वनीकरण (रीफॅारेस्टेशन) वह प्रक्रिया है जिसमें वन को फिर से लगाया जाता है जो पहले कभी मौजूद था और बाद में उसे नष्ट कर दिया गया। निर्वनीकृत क्षेत्र में पुनर्वनीकरण प्राकृतिक रूप से भी हो सकता है। फिर भी, वृक्षरोपण कर इस कार्य में तेजी ला सकते हैं। ऐसा करते समय उस क्षेत्र में पहले से मौजूद जैव विविधता का भी उचित ध्यान रखा जाता है।

वन-संरक्षण में लोगों की भागीदारी – एक अध्ययन

भारत में इसका लम्बा इतिहास है। सन 1731 में राजस्थान में जोधपुर नरेश ने एक नए महल के निर्माण के लिये अपने एक मंत्री से लकड़ी का इन्तजाम करने के लिये कहा। राजा के मंत्री और कर्मी एक गाँव, जहाँ बिश्नोई परिवार के लोग रहा करते थे, के पास के जंगल में वृक्ष काटने के लिये गए। बिश्नोई परिवार की अमृता नामक एक महिला ने अद्भुत साहस का परिचय दिया। वह महिला पेड़ से चिपक कर खड़ी हो गई और उसने राजा के लोगों से कहा कि वृक्ष को काटने से पहले मुझे काटने का साहस करो। उसके लिये वृक्ष की रक्षा अपने जीवन से कहीं अधिक बढ़कर है। दुःख की बात है कि राजा के लोगों ने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया और पेड़ के साथ-साथ अमृता देवी को भी काट दिया। उसके बाद उसकी तीन बेटियों तथा बिश्नोई परिवार के सैकड़ों लोगों ने वृक्ष की रक्षा में अपने प्राण गवाँ दिये। इतिहास में कहीं भी इस प्रकार की प्रतिबद्धता की कोई मिसाल नहीं है जबकि पर्यावरण की रक्षा के लिये मुनष्य ने अपना बलिदान कर दिया हो। हाल ही में, भारत सरकार ने अमृता देवी बिश्नोई वन्यजीव संरक्षण पुरस्कार देना शुरू किया है। यह पुरस्कार ग्रामीण क्षेत्रों के ऐसे व्यक्तियों या सामुदायों को दिया जाता है जिन्होंने वन्यजीवों की रक्षा के लिये अद्भुत साहस और समर्पण दिखाया हो। आपने हिमालय के गढ़वाल के चिपको आन्दोलन के बारे में सुना होगा। सन 1974 में ठेकेदारों द्वारा काटे जा रहे वृक्षों की रक्षा के लिये इससे चिपक कर स्थानीय महिलाओं ने काफी बहादुरी का परिचय दिया। विश्वभर में लोगों ने चिपको आन्दोलन की सराहना की है।

स्थानीय समुदायों की भागीदारी के महत्त्व को महसूस करते हुए भारत सरकार ने 1980 के दशक में संयुक्त वन प्रबन्धन (ज्वाइंट फॉरेस्ट मैनेजमेंट/जेएफएम) लागू किया जिससे कि स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर काफी अच्छी तरह से वनों की रक्षा और प्रबन्धन का कार्य किया जा सके। वनों के प्रति उनकी सेवाओं के बदले ये समुदाय विविध प्रकार के वनोत्पाद (फारेस्ट प्रोडक्ट्स) जैसे फल, गोंद, रबड़, दवाई आदि प्राप्त कर लाभ उठाते हैं। इस प्रकार वन का संरक्षण निर्वहनीय तरीके (सस्टेनेबल) से किया जा सकता है।

वर्तमान भारत में पर्यावरणीय मुद्दे

1.3 अरब से अधिक की आबादी के साथ, भारत जल्द ही चीन को सर्वाधिक आबादी वाले देश के रूप में मात देने के लिये तैयार हो गया है। आज भारत दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती आबादी वाला देश है, जबकि पर्यावरण और पारिस्थितिकी के संरक्षण में सबसे पीछे है। आज हमारा देश कई पर्यावरणीय समस्याओं से ग्रस्त है जो पिछले केवल कुछ दशकों से काफी बढ़ी हुई हैं। यह सही समय है जब हम इन मुद्दों पर प्रकाश डालें क्योंकि इन समस्याओं को नकारना कोई समाधान नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं की दौड़ में शामिल होने के साथ भारत को उस पथ का अनुसरण भी करना चाहिए जो पर्यावरण को पोषण प्रदान करता है। पर्यावरण के प्रति हमारी अनदेखी तबाही पैदा कर सकती है और एक ऐसी क्षति हो सकती है जिसकी कभी भरपाई ना की जा सके। इस प्रकार हमें पर्यावरण से होने वाली क्षति से पहले ही जागरूक हो जाना चाहिये। वैसे भी काफी देर हो चुकी है।

यहाँ पर भारत की कुछ ऐसी पर्यावरणीय समस्याएं हैं जिनका देश सामना कर रहा है।

वायु प्रदुषण

वायु प्रदूषण, भारत को प्रभावित करने वाली सर्वाधिक बुरी विपत्तियों में से एक है। अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2040 तक देश में वायु प्रदूषण में अधिक बढ़ोतरी के कारण लगभग 9 लाख मौतें होने की उम्मीद हैं। वायु प्रदूषण के कारण औसत जीवन की संभावनाएं लगभग 15 महीने कम हो सकती हैं। विश्व स्तर पर वायु प्रदूषण के मामले में भारत 20 में से 11 प्रदूषित शहरों का घर भी माना जाता है। 2016 के पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक की रैंकिंग के अनुसार, वायु प्रदूषण के मामले में भारत 180 देशों में से 141 वाँ स्थान रखता है।

भूजल स्तर में गिरावट

भूगर्भ जल स्तर में गिरावट देश में खाद्यान्न सुरक्षा और आजीविका के लिए सबसे बड़ा खतरा है। दशकों से भूगर्भ जल स्तर तक पहुँच बनाने और उपयोग करने में काफी मुश्किलें आ रही हैं। समाचार रिपोर्टों के अनुसार, गन्ने जैसी नकदी फसलों की सिंचाई के लिए सीमित भूजल संसाधनों के अत्यधिक दोहन ने जमीन में 10 मीटर के भीतर पानी की उपलब्धता में 6 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की है। कम वर्षा और सूखा भी भूजल की गिरावट का मुख्य कारण हैं। देश के उत्तरी-पश्चिमी और दक्षिणी-पूर्वी भागों में सूखे की समस्या सबसे ज्यादा है। यह क्षेत्र देश के कृषि उत्पादन और खाद्य संकट के लिये जिम्मेदार हैं जो एक प्राकृतिक परिणाम है।

जलवायु परिवर्तन

मई 2016 में राजस्थान के फलोदी में 51 डिग्री सेल्सियस तापमान दर्ज किया गया, यह देश का अब तक का सबसे अधिकतम तापमान था। पिछले वर्षों में गर्मी की तरंगों में बढ़ोतरी हुई है। यह संकेत करती हैं कि देश अब ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन जैसी चुनौतियों का सामना कर रहा है। हिमालय के ग्लेशियरों के एक गंभीर दर से पिघलने के कारण बड़ी मात्रा में बाढ़ जैसी प्राकृतिक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। पिछले पाँच वर्षों में वनों में आग, बाढ़ और भूकंप जैसी अन्य आपदाओं की संख्या अभूतपूर्व रही हैं।

प्लास्टिक का उपयोग

प्लास्टिक का असंयमित उपयोग देश के लिए एक अन्य बड़ी चिंता का विषय है। प्लास्टइंडिया फाउंडेशन के आँकड़ों के अनुसार,  भारत में पॉलिमर की मांग 2012-13 के 11 मिलियन टन से बढ़कर 2016-17 में 16.5 मिलियन टन हो जाने की उम्मीद है। 2006 में भारत में प्रति व्यक्ति द्वारा वार्षिक लगभग 4 किलोग्राम प्लास्टिक का उपयोग किया जा रहा था जो 2010 में बढ़कर लगभग 8 किलोग्राम हो गया। 2020 तक इसके लगभग 27 किलोग्राम प्रति व्यक्ति हो जाने की उम्मीद है। पर्यावरण को होने वाले नुकसान को जानने के लिये यह समझना बहुत जरूरी है कि प्लास्टिक निम्न बायोडिग्रेडेबल सामग्रियों में से एक हैं। एक औसत प्लास्टिक पेय की बोतल प्राकृतिक रूप से गलने में लगभग 500 वर्ष तक का समय ले सकती है।

कचरा निपटान और स्वच्छता

द इकोनॉमिस्ट दवारा 2014 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 130  मिलियन परिवारों (600 मिलियन जनसंख्या) के पास शौचालयों का अभाव है। भारत की लगभग 72 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण आबादी खुले में शौच करती है। प्राचीन तरीकों जैसे व्यक्तिगत सफाई कार्य अभी भी देश में प्रचलित है। देश में सुरक्षित कचरा निपटान का अभाव देश को विश्व के सबसे गंदे देशों में से एक बना देता है। इस संबंध में देश के ग्रामीण क्षेत्रो की स्थिति शहरी क्षेत्रों से भी खराब है। यह उन क्षेत्रों में से एक हैं जहाँ पर सरकार और लोगों को कड़ी मेहनत करने और प्रचलित परिस्थितियों में सुधार करने की आवश्यकता है।

जैव विविधता को क्षति

अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ द्वारा जारी लाल किताब में, भारत में पौधों और जानवरों की 47 प्रजातियों को गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजातियों में सूचीबद्ध किया गया है। पारिस्थितिकी और प्राकृतिक निवास की क्षति ने कई स्वदेशी प्रजातियों को खतरे में डाल दिया है इनमें साइबेरियन सारस, हिमालय के भेड़िये और कश्मीर हिरण शामिल हैं यह सभी विलुप्त होने की कगार पर हैं। भारत में तीव्र शहरीकरण, शिकार और चमड़े के लिये अंधाधुन्ध शिकार आदि इन जानवरों को गंभीर रूप से लुप्तप्राय और जड़ी-बूटियों को विलुप्त की कगार पर पहुँचाने के लिये जिम्मेदार है। सामान्य तौर पर औषधीय गुण रखने वाले पौधों को आयुर्वेदिक उपचार के लिये काट लिया जाता है।

भारत की पर्यावरणीय चुनौतियों में दो प्रमुख कारण हैं जो इसको दो विशाल अनुपात में विभाजित करते हैं। जिनमें पहला जनसंख्या विस्फोट और दूसरा अरबों लोगों की जरूरत जो पर्यावरणीय स्थिरता को एक मुश्किल मुद्दा बनाती हैं। इसमें अन्य सबसे बड़ी चुनौती पर्यावरण के प्रति जागरूकता और संरक्षण की कमी है। सरकारी एजेंसियों और पर्यावरणीय संगठनों द्वारा किये गये प्रयासों के बावजूद जनता द्वारा किये जाने वाले प्रयासों का अभाव है। जब तक यह परिवर्तन नहीं होते हैं तब तक सुधार की उम्मीदें बहुत कम हैं। हम भावी पीढ़ियों के हित में ईमानदार और अच्छा कार्य करने के लिये युवाओं और देश की युवा पीढ़ियों पर आशा करते हैं।

Class 12 Biology All Chapter Notes and Que & Ans